Saturday, August 14, 2010

Simdega : किसकी आजादी, किसका जश्न

नई दिल्ली  [ जगमोहन ]

प्रथम स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दृढ़ प्रतिज्ञा लेते हुए यह घोषणा की थी कि हम निश्चय ही एक शक्तिशाली भारत का निर्माण करेंगे। यह भारत न केवल विचारों में, कार्यो में और संस्कृति में शक्तिशाली होगा, बल्कि मानवता की सेवा के मामले में भी आगे होगा। लेकिन क्या हम ऐसा सचमुच कर पाए? क्या हमने एक ऐसे भारत का निर्माण नहीं किया है, जो विचारों में सतही, कार्यो में अकुशल, संस्कृति में उथला और मानवता की सेवा में कमजोर है?
14-15 अगस्त की अ‌र्द्धरात्रि में अपने ऐतिहासिक भाषण में नेहरू ने भरपूर जोश के साथ अपने काव्यात्मक अंदाज में कहा, 'मध्यरात्रि की इस बेला में, जबकि पूरा विश्व सोया हुआ है, भारत स्वतंत्रता और नए जीवन के लिए जगेगा। यह एक ऐसा क्षण है, जो इतिहास में बहुत ही दुर्लभ होता है। यह एक ऐसा क्षण है, जब हम पुराने से नए में प्रवेश कर रहे हैं। यह एक नए युग का आरंभ है। यह एक ऐसा समय है, जब वर्षो से दमित राष्ट्र की आत्मा फिर से जागने जा रही है।' परंतु भारत क्या वास्तव में जगा और अपनी आत्मा को नई अभिव्यक्ति दे सका? क्या यह सच नहीं है कि जगी हुई भारत की आत्मा को फिर से सुला दिया गया और इस पर दमन की और परतें चढ़ा दी गई?
हमने अपने लिए एक संविधान का निर्माण किया और भारत में संप्रभुतासंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की धारणा को स्थापित किया गया। परंतु यहां लोकतांत्रिक गणराज्य की बजाय वंशवादी प्रभुत्व है, संप्रभुता का उपयोग विधायिका में चुने गए अपराधी कर रहे हैं और इसी तरह पंथनिरपेक्षता का व्यावहारिक उपयोग जाति और समूह के आधार पर राजनीतिक निर्णयों में देखा जा सकता है। इसी तरह समाजवाद की धारणा आज उच्चतम आय यानी असमानता का कारण बन रही है?
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के नीचे सत्यमेव जयते यानी सत्य की ही विजय होती है, लिखा हुआ है। आखिर क्या वजह है कि असत्य का साम्राज्य फैला हुआ है और लोगों पर लग रहे कलंक और झूठ को लेकर बहसें हो रही हैं? झंडे में बना चक्र हमारी प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है, लेकिन क्या हम आज अपनी प्राचीन संस्कृति की जड़ों पर ध्यान दे रहे हैं?
देश का सर्वोच्च पद भी स्वार्थ से प्रेरित अनैतिक राजनीति का शिकार बन चुका है। लोकतंत्र के इस सर्वोच्च पद पर भी राजनीतिक शिकंजा कसता नजर आ रहा है। हत्या, अपहरण, अवैध गतिविधियों में लिप्त आज लोकतंत्र के सम्मानित सासद, विधायक हैं। जेल में बंद हैं, फिर भी सासद हैं। जो जंगल में घूम रहे हैं, वे संसद में दिख रहे हैं। आखिर आजादी के बाद उभरे इस तरह के परिदृश्य के लिए कौन जिम्मेवार है?
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या देश के इन्हीं हालातों के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानिया दी? इस तरह के उभरते हालातों पर आज मंथन करने की विशेष जरूरत है। वर्ष 1857 से लेकर 9 अगस्त 1947 के मध्य छिड़ी आजादी की जंग पर एक नजर डालें, जहा देश की आजादी के लिए अनोखी जंग छिड़ गई थी। एक तरफ अंग्रेजों को छक्के छुड़ाने वाली लक्ष्मी बाई तो दूसरी ओर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पड़े बूढ़े शेर बाबू कुंवर सिंह के बाजुओं की ताकत के आगे निढाल पड़ी अंग्रेजी हुकूमत।
साथ ही साथ देश भक्ति में सराबोर हुए आजादी के दीवानों का जत्था, जिनकी कुर्बानियों के आगे अंग्रेजी हुकूमत को यहा से बिदा होना पड़ा।
हम याद करें, मंगल पाडे की कहानी, जिन्होंने निस्स्वार्थ भाव से अंग्रेजों के विरूद्ध अलख जगाकर आजादी की जंग छेड़ दी। राम प्रसाद विस्मिल, भगत सिंह, आजाद आदि के त्याग एवं बलिदान की कहानी को इतना जल्दी कैसे भूल गए? आज गाधी, बाल गंगाधर तिलक, के साथ-साथ देश की आजादी की जंग में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अनेक गुमनाम शहीद हर भारतीय से पूछ रहे हैं, क्या भारत के इसी स्वरूप के लिए हम सबने बलिदान दिया?

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